शाजी थॉमस
गेवरा।विश्व की दूसरी और एशिया की सबसे बड़ी कोयला खदान का तमगा भले ही गेवरा क्षेत्र को प्राप्त हो, लेकिन यहां के आवासीय परिसर में रहने वाले कर्मचारियों के लिए पेयजल सेवा अब एक मज़ाक से कम नहीं रह गई है। यहां के नलों से जो जलधारा बह रही है, उसे देखकर समझ नहीं आता कि बाढ़ आई है या पानी सप्लाई हो रही है।
पानी की स्थिति इतनी भयावह है कि इसे तीन-इन-वन उपयोगी तरल घोषित किया जा सकता है — नहाना, पीना और कीचड़ स्नान। ऊपर से टंकी से आने वाली मटमैली धाराएं इस बात की गवाही देती हैं कि यहां कोई नर्मदा योजना नहीं, बल्कि ‘मिशन दलदली जल’ जोर-शोर से चल रहा है।
फिल्टर नहीं, खुद ही छान लो…जो पानी टंकी से आ रहा है, उसे यदि थोड़ी देर किसी बर्तन में छोड़ दें, तो उसमें पानी ऊपर और मिट्टी नीचे जम जाती है। यानी अब यहां प्राकृतिक छानने की सुविधा घर बैठे उपलब्ध है।लोगों की हालत यह हो गई है कि अब बर्तन से पानी नहीं, बल्कि पानी से मिट्टी छानते नजर आते हैं।
गेवरा फिल्टर प्लांट बना भ्रष्टाचार का हॉटस्पॉट
स्थानीय लोग चुटकी लेते हैं कि फिल्टर प्लांट बस नाम का है, जैसे सरकारी दफ्तरों में “कार्य प्रगति पर है” के बोर्ड टंगे होते हैं और अंदर कर्मचारी चाय की चुस्की में व्यस्त होते हैं।यहां की हालत भी कुछ ऐसी ही है — पानी भले मटमैला हो, फॉर्मेलिटी पूरी है।
RO वालों की आंखें फटी रह जाती हैं!जब RO और मिनरल वाटर पीने वाले शहरी मेहमान यहां पहुंचते हैं और पानी की शक्ल देख चौंक कर पूछ बैठते हैं “ये क्या है?”तो जवाब आता है —“सर, ये हमारा लोकल मिनरल वाटर है… मिट्टी मिनरल।
सेहत का जिम्मा अब उबाल और भगवान के भरोसे।
स्थिति ये है कि कर्मचारियों की सेहत अब सिर्फ दो चीज़ों पर टिकी है — उबालने की प्रक्रिया और भगवान।हर सुबह का मंत्र बन चुका है —“हे बॉयलर देवता, इस पानी से रोग न देना।
गेवरा क्षेत्र के आवासीय परिसर में पानी अब पीने की चीज़ नहीं, बल्कि सामाजिक व्यंग्य का विषय बन चुका है।“हर घर नल, हर नल में दलदल” की नीति को इतनी ईमानदारी से लागू किया गया है कि अब लोग शिकायत नहीं, कविता लिख रहे हैं।
यह समाचार हमारे एक पाठक ने व्यंग्यात्मक तौर पर भेजा है , जो इन समस्याओं से जूझ रहे हैं।